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फिल्मों की शुरुआत में दिखाई देने वाला 'Disclaimer' कहां से आया है?

सिनेमा के पहले 'डिस्क्लेमर' का कारण था रूस का एक स्वघोषित साधू, जिसके कहने पर रूस पहले विश्व युद्ध का हिस्सा बना था.

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Cinema
'Disclaimer' की बदौलत चली फिल्में.
16 फ़रवरी 2023 (Updated: 16 फ़रवरी 2023, 17:37 IST)
Updated: 16 फ़रवरी 2023 17:37 IST
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हर फिल्म शुरू होने से पहले आपने ‘डिस्क्लेमर’ ज़रूर पढ़ा होगा. 

All Characters appearing in this film are fictitous. Any resemblance to real persons living or dead, is purely coincidental.

यह फिल्म काल्पनिक घटनाओं पर आधारित है.

इस फिल्म की शूटिंग के दौरान किसी भी जानवर को नुकसान नहीं पहुंचाया गया है. 

इस तरह के अनेक डिस्क्लेमर्स. लेकिन जितना सीरियसली हम सिगरेट के डब्बे पर लिखी वॉर्निंग्स को लेते हैं, बस उतना ही अटेंशन इन डिस्क्लेमर्स को भी मिलता है. हाल ही में देखा गया है कि इन डिस्क्लेमर्स का साइज़ एक फ्रेम तक सीमित नहीं रह गया है बल्कि चार-पांच फ्रेम्स तक पहुंच गया है. ‘पद्मावत’, ‘उड़ता पंजाब’ जैसी फिल्में एक अच्छा उदाहरण है. जब फिल्म देखने वाली जनता को ही इसमें कोई इंटरेस्ट नहीं है, फिर इन डिस्क्लैमर्स की क्या ज़रुरत? आजकल ये डिस्क्लेमर्स सबके लिए नहीं बल्कि सिर्फ उन लोगों के लिए होते हैं, जिनकी भावनाएं बहुत जल्दी आहत हो उठती हैं.  भावनाएं तो हमेशा से आहत होती रही हैं और आगे भी होती रहेंगी. और डिस्क्लेमर के साइज़ भी बढ़ते रहेंगे. लेकिन जिस तरह चांद पर पहला कदम किसी ने न किसी ने तो रखा ही था, उसी तरह कभी न कभी पहली बार कोई न कोई फिल्म देखकर किसी न किसी की भावनाएं आहत हुई ही होंगी. और इसी आहत हुई भावना से प्रकृति में कुछ रिएक्शन हुए. जिसके फलस्वरूप जन्म हुआ पृथ्वी पर पहले डिस्क्लेमर का. आज बात करेंगे इसी डिस्क्लेमर की.

पहले डिस्क्लेमर की कहानी शरू होती है, रूस के एक किसान परिवार में जन्म लेने वाले ग्रिगोई रासपुतिन से. रासपुतिन को किसानी रास नहीं आई. वो सब कुछ छोड़कर एक साधू की तरह ज़िन्दगी जीने लगे. उनकी कही हुई बातें सच होने लगी. धीरे-धीरे लोगों के बीच रासपुतिन चर्चा का विषय बनने लगे. लोग उनकी कही हर बात पर विश्वास करने लगे. कोई बात चलनी शुरू होती है, तो उसके साथ और भी बातें जुड़ने लगती हैं. इसी तरह लोग ये भी मानने लगे कि रासपुतिन सम्मोहन यानि हिप्नोटाईज़ करना भी जानते हैं. प्रजा से होते हुए ये बात अब जा पहुंची राजा तक. 

साल 1906. रूस के आखरी शाही परिवार की रानी थी, एलेक्जेंड्रा. एलेक्जेंड्रा के बेटे थे एलेक्सी. एलेक्सी की तबियत बेहद खराब थी. रानी को जहां से भी उम्मीद थी, वहां से इलाज करवाया. लेकिन निराशा ही हाथ लगी. जब सब रस्ते बंद हुए तो रानी ने रासपुतिन के लिए अपने दरवाज़े खोले. रासपुतिन को बुलाया गया. उसने भरोसा दिलाया कि एलेक्सी को कुछ नहीं होगा. देखते ही देखते राजकुमार की हालत सुधरने लगी और यही से रासपुतिन जी का मुरीद पूरा शाही परिवार होने लगा. हर फैसला रासपुतिन से पूछकर ही लिया जाने लगा.

रासपुतिन की कहानी में अबतक सब कुछ बढ़िया चल रहा है. लेकिन ऐसी कहानी में भावना के आहत होने का तो स्कोप है ही नहीं. तो कहानी में थोडा ट्विस्ट लाते हैं. 1914, यानी प्रथम विश्वयुद्ध का साल. कहा जाता है कि रूस ने यह विश्वयुद्ध रासपुतिन के कहने पर ही लड़ा था. एक तरफ सब रासपुतिन के मुरीद हुए जा रहे थे, वहीँ दूसरी तरफ उनके और एलेक्जेंड्रा के शारीरिक संबंधों के किस्से शुरू होने लगे थे. इस बारे में कभी कोई सबूत सामने नहीं आया लेकिन एक तरफ युद्ध में रूस हार रहा था और दूसरी तरफ रासपुतिन-एलेक्जेंड्रा के किस्से थे. एलेक्जेंड्रा खुद जर्मन थी और रूस युद्ध में जर्मनी के खिलाफ लड़ रहा था. 

एलेक्जेंड्रा का जर्मन होना और रासपुतिन-एलेक्जेंड्रा के संबंधों की ख़बरों के चलते लोगों का गुस्सा बढ़ने लगा. दोनों को जर्मनी का एजेंट साबित करने के लिए भीड़ का गुस्सा ही काफी था. सच चाहे कुछ भी रहा हो. इसके बाद शाही परिवार के अंतिम राजकुमार फेलिक्स युसुपोव ने एक पार्टी में रासपुतिन को ज़हर देकर मारने की कोशिश भी की. ज़हर का असर नहीं हुआ तो फेलिक्स ने रासपुतिन को पेट में गोलियां मारी. रासपुतिन ज़मीन पर गिर गया. लेकिन कुछ देर में वो फिर उठ खड़ा हुआ. इसके बाद वहां मौजूद लोगों ने उसे खूब पीटा. इन सबके बाद उसे एक कपडे में लपेटकर नदी में फेंक दिया. माना जाता है कि, न गोलियों से, न लोगों की पिटाई से, रासपुतिन की मौत हुई पानी में डूबने से. 

ये कंटेंट बिलकुल परफेक्ट है एक ज़बरदस्त ट्विस्ट एंड टर्न से भरी मूवी बनाने के लिए. एमजीएम यानी Metro-Goldwyn-Mayer, एक अमेरिका बेस्ड प्रोडक्शन और डिस्ट्रीब्यूशन कंपनी है. इसी के प्रोडक्शन में बनी फिल्म 'रासपुतिन एंड द एम्प्रेस'. यह फिल्म रासपुतिन के जीवन पर आधारित थी. इस फिल्म में दिखाया गया था कि रासपुतिन ने युसुपोव की पत्नी आइरिन का बलात्कार किया था. इसी से आहत होकर युसुपोव ने कोर्ट में एक दावा ठोका. जूरी ने फिल्म को दो बार देखा और फैसला सुनाया कि इससे आइरिन और युसुपोव की भावनाएं आहत हुई हैं. MGM को सजा के तौर पर युसुपोव को भारी हर्जाना भी देना पड़ा था. विकिपीडिया पर मौजूद जानकारी के मुताबिक़ एक जज ने कहा था कि MGM का केस मज़बूत होता अगर वो फिल्म की शुरुआत में यह मेंशन कर देते कि फिल्म का उद्देश्य वास्तविक लोगों या घटनाओं का सटीक चित्रण नहीं था. इसके बाद से ही कई प्रोड्यूसर और स्टूडियोज़ ने फिल्म से पहले डिस्क्लेमर देना शुरू कर दिया था. 

डिस्क्लेमर की यह कहानी भी यही बताती है. डिस्क्लेमर जनता के लिए कम होता है. कोर्ट और आहत भावनाओं से बचने का तरीका ज़्यादा दिखाई देता है. लेकिन एक अच्छी बात ये भी है कि फिल्म बनाने वाले खुद ये ऐलान करते हैं कि जो हम लोग दिखाने जा रहे हैं, वो एक काल्पनिक कहानी है. इसके बाद भी हम खुद को पूरी तरह सरेंडर करके कुछ देर के लिए उस कहानी को सच समझकर देखते जाते हैं. यही सिनेमा का जादू है. शायद दुनिया का कोई डिस्क्लेमर इस जादू को फीका नहीं कर पाएगा. 

जाते-जाते एक छोटा सा ट्रिविया. हाल ही में रील्स में भयंकर मशहूर हुआ गाना ‘रा रा रासपुतिन’ हमारी कहानी वाले महाशय पर ही बना हुआ है. 

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