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वो 4 महिलाएं, जिन्होंने बिलकिस बानो को न्याय दिलवाने में तगड़ी भूमिका निभाई

प्रोफेसर, पत्रकार, एक्टिविस्ट, एडवोकेट. इन चार महिलाओं ने बिलकिस बानो केस में न्याय की लड़ाई लड़ी. और जीती भी.

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subhashini ali and others
वो चार महिलाएं, जिन्होंने इंसाफ की लड़ाई मुतवातर लड़ी.
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9 जनवरी 2024
Updated: 9 जनवरी 2024 23:44 IST
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न्याय व्यवस्था का एक स्थापित सिद्धांत है.

"सौ गुनहगार भले ही छूट जाएं, लेकिन किसी बेगुनाह को सज़ा नहीं होनी चाहिए".

लेकिन ये सिद्धांत भारतभूमि की पावन धरा पर थोड़ा सा डिस-फंक्शनल हो जाता है. रसूखदार गुनाहगारों के छूट जाने का प्रतिशत थोड़ा ज़्यादा ही है इधर. इनमें से भी ज़्यादातर वो रसूखदार होते हैं, जिनकी थैली में दम होता है. इंसाफ की खरीद-फरोख्त उनके लिए कोई बड़ा मसला नहीं होता. और कुछ ऐसे रसूखदार होते हैं, जिनको राजनीतिक शरण मिलती है. ऐसे ही कुछेक लोगों को पिछले दिनों रिहाई नसीब हुई. बावजूद इसके कि वो एक घिनौने क्राइम में कोर्ट से सज़ायाफ्ता मुजरिम थे.

बिलकिस बानो के साथ गैंग रेप और उनके परिवार के सदस्यों की हत्या करने के जुर्म में सज़ा भुगत रहे 11 दोषियों को अगस्त 2022 में रिहा कर दिया गया. 1992 की एक पॉलिसी को आधार बनाकर गुजरात सरकार ने उन्हें आज़ादी दे दी. और तो और, इतना भयानक क्राइम करने वाले इन अपराधियों का बाहर आने पर फूल-मालाओं से स्वागत हुआ. ज़ाहिर है इस घटनाक्रम ने भारत के तमाम संवेदनशील लोगों को आक्रोश से भर दिया. गुजरात सरकार के इस फैसले की बहुत आलोचना हुई. एक्टिविस्ट, लेखक, पत्रकार जैसे तमाम इंटेलेक्चुअल्स ने सुप्रीम कोर्ट से आग्रह किया कि वो गुजरात सरकार के इस फैसले को निरस्त कर दें. एक पिटीशन भी दायर की गई. 8 जनवरी 2014 को सुप्रीम कोर्ट ने ऐसा ही किया. गुजरात सरकार का आदेश पलटते हुए सभी 11 लोगों को दो हफ़्तों के अंदर सरेंडर करने को कहा.

सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद बिलकिस बानो ने कहा कि वो डेढ़ साल में पहली बार मुस्कुराई हैं. राहत के आंसू रोए हैं. उनको राहत दिलाने के इस काम में सुप्रीम कोर्ट के अलावा भी कुछ लोगों का हाथ है. वो लोग, जिन्होंने क़ानून के दरवाज़ों को खटखटाना नहीं छोड़ा. आज ऐसी ही चार महिलाओं की बात करेंगे, जिन्होंने बिलकिस बानो की लड़ाई पूरी शिद्दत से लड़ी. इनमें से तीन सुप्रीम कोर्ट में याचिकाकर्ता थीं.

# सुभाषिनी अली

"अगर धर्म और जात के आधार पर न्याय प्रक्रिया चलेगी, तो फिर रूल ऑफ़ लॉ खतरे में आ जाएगा. इसके खिलाफ हम सबको खड़ा होना पड़ेगा".

सुभाषिनी अली ने ये बात सुप्रीम कोर्ट में PIL दाखिल करने के कुछ दिन बाद एक न्यूज़ चैनल से बात करते हुए कही थी. उनका मानना था कि अपराधियों की रिहाई से भी ज़्यादा प्रॉब्लमैटिक उनका महिमामंडन था.

76 वर्षीय सुभाषिनी अली सीपीआई (एम) की सदस्य हैं. वृंदा करात के बाद दूसरी ऐसी महिला हैं, जो पोलित ब्यूरो की मेंबर हैं. महिला अधिकारों के लिए काम करने वाली संस्था 'ऑल इंडिया डेमोक्रेटिक विमेंस एसोसिएशन' (AIDWA) की प्रेसिडेंट भी रह चुकी हैं. सांसद भी रह चुकी हैं. फिल्मों में एक्टिंग भी की और कॉस्च्युम भी डिज़ाइन किए. एक्टिविस्ट, पॉलिटिशियन, लेखक, एक्टर, डिज़ाइनर... काफी विविधता रही उनके जीवन में.

सुभाषिनी अली, नेताजी सुभाष चंद्र बोस की इंडियन नेशनल आर्मी में अफसर रह चुकी कैप्टन लक्ष्मी सहगल की बेटी हैं. उन्होंने दिग्गज फिल्ममेकर मुज़फ्फर अली से शादी की थी. उन्हीं की क्लासिक फिल्म 'उमराव जान' में उन्होंने कॉस्च्युम डिज़ाइनर की ज़िम्मेदारी संभाली. शाहरुख खान की फिल्म 'असोका' में उन्होंने सम्राट अशोक बने शाहरुख की मां का रोल किया था. मुज़फ्फर अली और सुभाषिनी के बेटे का नाम शाद अली है, जो जानेमाने फिल्म डायरेक्टर हैं. 'साथिया', 'बंटी और बबली, 'झूम बराबर झूम' जैसी फ़िल्में बना चुके हैं. सुभाषिनी अली ने कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो का हिंदी ट्रांसलेशन भी किया है. उन्होंने 1989 में कानपुर से लोकसभा का चुनाव लड़ा और भाजपा प्रत्याशी को हराकर विजयी हुईं.

सुभाषिनी अली पहली बार बिलकिस बानो से 2002 में मिली थीं. उनके साथ हुए गैंग रेप के दो दिन बाद. एक रिलीफ कैम्प में. जब बिलकिस के गुनाहगारों को छोड़ दिया गया, तो बिलकिस बानो ने एक सवाल किया था. कि क्या इंसाफ का रिवाज ख़त्म हो गया है? सुभाषिनी अली कहती हैं,

"जब मैंने बिलकिस का ये बयान सुना तो मुझे जैसे बिजली का तेज़ झटका सा लगा. मैंने सोचा कि हम लोग कर क्या रहे हैं?"

नतीजा ये रहा सुप्रीम कोर्ट में दाखिल याचिका में पहला नाम उन्हीं का रहा.

# रेवती लाल

दूसरा नाम है इंडिपेंडेंट जर्नलिस्ट रेवती लाल का. रेवती लाल कई जाने-माने मीडिया संस्थानों के लिए काम कर चुकी हैं. बिलकिस बानो की लड़ाई में रेवती लाल एक मुखर फ़ोर्स रही हैं. 2018 में उनकी एक किताब भी आई थी, जो गुजरात दंगों पर आधारित थी. किताब का नाम है 'दी एनाटोमी ऑफ हेट'. ये किताब गुजरात दंगों के आततायियों के जीवन को बेहद करीब से दिखाती है.

सुप्रीम कोर्ट ने जब गुजरात सरकार का फैसला रद्द करने की बात कही, तो रेवती लाल का पहला बयान कुछ यूं था.

"जब सुप्रीम कोर्ट ने फ़ैसला सुनाया, तो अंधेरे में रोशनी की किरण दिखाई दी. लगा कि उन किरणों को हम अपनी ओर खींच लेंगे".

रेवती लाल बताती हैं कि जब अगस्त 2022 में गुजरात सरकार ने अपराधियों को छोड़ने का फैसला किया, तब उन्हें एक सहयोगी पत्रकार का फोन आया था. उनसे पूछा गया कि क्या वो इस मामले में याचिकाकर्ता बनेंगी? उन्होंने तुरंत हामी भर दी थी. वो 2002 में उस घटना के बाद बिलकिस से मिली थीं और गुजरात दंगों पर किताब भी लिख चुकी थीं. इस घोर अन्याय की ग्रेविटी से वो भलीभांति परिचित थीं.

रेवती लाल, उत्तरप्रदेश के शामली में एक स्वंयसेवी संस्था 'सरफ़रोशी फॉउंडेशन' चला रही हैं. वो इस पिटीशन की पहल का सारा श्रेय सुभाषिनी अली को देती हैं.

# प्रोफेसर रूपरेखा वर्मा

तीसरा नाम है प्रोफेसर रूपरेखा वर्मा का. रूपरेखा वर्मा लखनऊ यूनिवर्सिटी की वाइस चांसलर रह चुकी हैं. फिलॉसफी की प्रोफेसर और सोशल एक्टिविस्ट हैं. 80 साल की प्रोफेसर रूपरेखा वर्मा कई एक्टिविज्म कैम्पेन्स की पोस्टर वुमन रह चुकी हैं. वो न्याय के लिए लड़ने वाले असहाय तबके की मुखर आवाज़ रही हैं. अक्टूबर 2020 में UAPA लगाकर पत्रकार सिद्दीक कप्पन को अरेस्ट किया गया था. उनकी ज़मानत देने के लिए उत्तर प्रदेश से जो दो नाम राज़ी हुए थे, उनमें से एक रूपरेखा वर्मा का था. वो 'साझी दुनिया' नाम का एक NGO चलाती हैं, जो जेंडर बेस्ड वॉयलेंस के खिलाफ काम करता है.

बिलकिस बानो केस में पिटिशनर बनने के लिए जिस वक्त प्रोफेसर रूपरेखा वर्मा को कॉल आया था, उस वक्त वो दिल्ली एयरपोर्ट पर थीं और लखनऊ की फ्लाइट पकड़ने की तैयारी कर रही थीं. उन्होंने ना सिर्फ निसंकोच हामी भर दी, बल्कि लखनऊ पहुंचकर अपना आधार कार्ड भी कुरियर कर दिया. उनका कहना था कि वो गुजरात सरकार के उस फैसले से बहुत विचलित थीं. हालांकि प्रोफ़ेसर रूपरेखा वर्मा ने कभी बिलकिस बानो से मुलाकात नहीं की क्योंकि वो उन्हें परेशान नहीं करना चाहती थीं.

जब सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया और उसने गुजरात सरकार द्वारा दी गई रिहाई को पलट दिया, तब प्रोफेसर रूपरेखा वर्मा ने कहा,

"मैं बहुत खुश हूं. मेरा इंसाफ में भरोसा फिर से जाग गया है. निराशा का बादल थोड़ा सा छंट गया है. जजों का बहुत-बहुत शुक्रिया और बिलकिस को सलाम".

# शोभा गुप्ता

सुप्रीम कोर्ट में दाखिल याचिका की तीन याचिकाकर्ताओं के बारे में तो हमने पढ़ लिया, लेकिन ये आर्टिकल एक और महिला के ज़िक्र के बिना अधूरा रहेगा. एडवोकेट शोभा गुप्ता. बिलकिस बानो की वकील. जो दो दशक से ज़्यादा समय से बिलकिस के साथ मज़बूती से खड़ी हैं. बिलकिस को इंसाफ दिलाने के लिए जिन्होंने लगातार संघर्ष किया. चाहे लोअर कोर्ट हो, हाई कोर्ट हो या सुप्रीम कोर्ट. हर जगह उन्होंने बिलकिस की लड़ाई लड़ी. जीती भी. ऐसी ही एक लड़ाई 8 जनवरी 2024 को जीती गई. सुप्रीम कोर्ट ने जब गुजरात सरकार का फैसला निरस्त किया, तब ख़ुशी से सराबोर शोभा गुप्ता ने कहा,

"उन 11 लोगों की जगह जेल ही है, वो वहीं रहना डिज़र्व करते हैं. लेकिन इंसाफ की ये डगर आसान नहीं थी. आज बिलकिस बहुत खुश है. ये हम सबके लिए बड़ी जीत है. इंसाफ की जीत हुई है".

54 वर्षीय शोभा गुप्ता, 2002 दंगों के बाद से ही बिलकिस बानो का केस लड़ रही हैं. बिना किसी फीस के. शोभा गुप्ता पिछले 16 सालों से नेशनल ह्यूमन राइट्स कमीशन की सदस्य हैं. वो नाबालिगों को मुफ्त में कानूनी सहायता प्रोवाइड कराने वाली संस्था 'FLAG- Free Legal Aid Group' की फाउंडर हैं.

सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद शोभा गुप्ता ने कहा,

"भारत में, इंसाफ मिलने में असाधारण देरी होती है. फिर भी सभी को न्याय देने के मामले में हमारी न्याय व्यवस्था चुनिंदा सर्वश्रेष्ठ न्याय व्यवस्थाओं में से एक है".

उम्मीद है न्यायपालिका में उनका ये भरोसा आगे भी बना रहेगा.

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