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नेपाल में लोकतंत्र हटाने की मांग, 'हिंदू राष्ट्र' मांगने वालों पर लाठियां क्यों चल रही हैं?

राजकुमार के क़त्ल पर ख़त्म हुई थी राजशाही. अब वापस कुछ दक्षिणपंथी दल राजशाही को वापस बहाल करना चाहते हैं. मगर ये बस उनकी मंशा नहीं है.

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राजशाही बहाल करने की मांग कर रहे समर्थकों को रोकने के लिए पुलिस ने लाठी और आंसू गैस का इस्तेमाल किया. (फ़ोटो - AP)
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11 अप्रैल 2024 (Updated: 11 अप्रैल 2024, 13:49 IST)
Updated: 11 अप्रैल 2024 13:49 IST
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पहले भर दुनिया में राजा-महाराजा थे, राजशाही थी. राजा का बेटा राजा बनता था और राजा जैसा व्यक्ति होता था, वैसा ही शासन चलाता था. इतिहास में जितने अच्छे राजा हुए, उतने ही या उनसे ज़्यादा क्रूर राजा हुए. 19वीं-20वीं सदी आते-आते दुनिया में राजशाही ख़त्म होती गई. फ़्रांस की क्रांति के बाद से लोगों को शासन का एक बेहतर विकल्प मिल गया था – लोकतंत्र. चूंकि लोकतंत्र की नींव में प्रतिनिधित्व, जवाबदेही और नागरिक अधिकारों की जगह है, इसीलिए अलग-अलग देशों में आंदोलन के बाद लोकतंत्र ने राजशाही की जगह ले ली. अलग-अलग आवाज़ों को सुनने-समझने-राज़ी करने की वजह से भले ही सिस्टम थोड़ा स्लो है, मगर शासन के मौजूदा सिस्टम में सबसे 'स्थिर' यही है. लेकिन एक देश में इस स्थिर सिस्टम को हटाने के लिए आंदोलन हो रहे हैं. लोकतंत्र के पक्ष में लाठीचार्ज करने की नौबत तक आ गई. और, ये कहां हो रहा है? पड़ोस में. पड़ोसी मुल्क नेपाल में.

मंगलवार, 9 अप्रैल को राजधानी काठमांडू में राजशाही वापस लाने की मांग कर रहे सैकड़ों प्रदर्शनकारियों की पुलिस से झड़प हो गई. बैरिकेड्स तोड़ कर दर्जनों प्रदर्शनकारी प्रतिबंधित क्षेत्र में घुस गए. फिर पुलिस ने ऐक्शन लिया. लाठियां, वॉटर कैनन और आंसू गैस दागने पड़े.

कौन मांग रहा है राजशाही?

नेपाल की संसद में पांचवीं सबसे बड़ी पार्टी है, राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी (RPP). दक्षिणपंथी पार्टी है. राजशाही का समर्थन करती है. इन्होंने ही प्रदर्शन आयोजित किया था. अपने कैडरों के साथ राजधानी में मार्च किया, नारे लगाए. गणतंत्र के अंत और राजशाही की वापसी की गुहार लगाई. मामला बिगड़ा और पुलिस ने ऐक्शन लिया, तो पुलिस कार्रवाई के लिए उपप्रधानमंत्री और गृह मंत्री रबी लामिछाने के इस्तीफ़े की भी मांग की.

देश में राजशाही राजकुमार के क़त्ल पर ख़त्म हुई थी. अब राजशाही को वापस बहाल करने की मांग हो रही है. फ़ेस वैल्यू पर लग सकता है कि ये केवल एक समूह की मांग है. फ़्रिंज है. लेकिन नहीं, माजरा इतना सिंपल नहीं है.

नेपाल में राजशाही का इतिहास

मुल्क में राजशाही का इतिहास बहुत पुराना है. अगर नेपाल में राजशाही के शुरुआती निशान खोजे जाएं, तो किरात राजवंश से भेंट होगी. बहुत प्राचीन रिकॉर्ड्स संकेत देते हैं कि इन्होंने 7वीं शताब्दी ईसा पूर्व (BC) के आसपास शासन किया था. लेकिन उतना पीछे नहीं जाने की ज़रूरत नहीं है.

नेपाल के एकीकरण और शाह राजवंश का उदय. ये एक माइल्सटोन हो सकता है. 18वीं शताब्दी का समय. उस वक़्त तक नेपाल सात छोटे-छोटे प्रांतों का गुच्छा था. गोरखा साम्राज्य के राजा पृथ्वी नारायण शाह ने एक अभियान शुरू किया. पूरे क्षेत्र के अलग-अलग छोटे राज्यों और रियासतों को एकजुट करने के लिए अपने घोड़े पर निकल पड़े. रास्ते में उन्हें जो जीत मिली, उसी से बना आज का नेपाल. साल 1768 में राजा पृथ्वी नारायण शाह ने शाह राजवंश की स्थापना की. शाहों ने आने वाली दो सदियों तक देश पर हुकूमत की.

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19वीं शताब्दी में राणा साम्राज्य उरूज पर आया. मगर इसमें सिस्टम कुछ बदल गया. राजा होते थे, मगर असल ताक़त प्रधानमंत्रियों के पास होती थी. राणा वंश के लोग ही प्रधानमंत्री थे. इसे कहते हैं, कुलीनतंत्र. 20वीं सदी के मध्य तक ऐसा ही चला. फिर 1951 में एक आंदोलन हुआ, राणा शासन का ख़ात्मा हो गया और राजा त्रिभुवन शाह को मिल गई सत्ता.

इसके बाद मार्च, 1955 में राजा महेंद्र ने सत्ता संभाली. साल 1959 में उन्होंने एक संवैधानिक राजतंत्र (constitutional monarchy) स्थापित किया. हालांकि, राजा ने ज़रूरी ताक़तें अपने पास ही रखीं. साल 1972 तक महेंद्र गद्दी पर रहे और उनके शासन में राजनीतिक अस्थिरता और छिटपुट आंदोलनों का दौर चलता रहा.

माओवादी विद्रोह (1996-2006)

देश में राजशाही की वजह से जनता बहुत ख़ुश नहीं थी. ग़रीबी और ग़ैरबराबरी से जनता त्रस्त थी. ख़ासकर गांवों में. लोगों के मन में राजतंत्र की धारणा भी बहुत अच्छी नहीं थी. सरकार को भ्रष्ट और अनुत्तरदायी के तौर पर देखा जाता था. माओवादी विचारधारा और अन्य कम्युनिस्ट क्रांतियों से प्रेरणा लेकर नेपाली कम्यूनिस्ट पार्टी (माओवादी) ने सत्ता के ख़िलाफ़ मोर्चा खोल दिया. मक़सद सिर्फ़ एक, कि राजतंत्र को हटाया जाए और नेपाल को एक कम्युनिस्ट देश बनाया जाए.

13 फ़रवरी, 1996 को CPN(M) ने एक औचक हमला कर दिया. यहां से शुरू हुआ संघर्ष. उन्होंने गंवई इलाक़ों में पुलिस स्टेशन्स और सरकारी इमारतों को निशाना बनाया. गुरिल्ला रणनीति अपनाई. इस संघर्ष की क़ीमत आम जनता ने चुकाई, हर बार की तरह. जैसे-जैसे संघर्ष बढ़ता गया, नेपाली सरकार ने अपना रुख कड़ा किया. सुरक्षा बलों को तैनात किया और आपातकालीन उपाय लागू किए. हालांकि, मानवाधिकारों के हनन और ग़ैर-न्यायिक हत्याओं की वजह से आबादी नाराज़ थी. इससे विद्रोह को और ईंधन मिल गया. साल 2000 तक  विद्रोह अपने चरम पर पहुंच गया था. मगर फिर घटा, शाही हत्याकांड.

1 जून, 2001 की बात है. उस रोज़ नेपाल के शाही महल 'नारायणहिति पैलेस' में राजकुमार दीपेंद्र ने एक पार्टी का आयोजन किया था. अपनी ही पार्टी में दीपेंद्र शाम साढ़े सात बजे के आसपास पहुंचे. कुछ देर शराब पी, फिर कहीं चले गए. वापस आए, तो हाथ में एक 9 एमएम की पिस्टल, एक MP5K सबमशीन गन और कोल्ट एम- 16 राइफ़ल थी. भरी सभा में दीपेंद्र ने तड़-तड़ गोलियां चलानी शुरू कर दी. अपने पिता नेपाल नरेश बीरेंद्र को निशाना बनाया, अपनी मां रानी ऐश्वर्या के सिर पर गोली मारी और कुल आठ अन्य रिश्तेदारों को भी मार दिया. गोया उन पर कोई भूत सवार था. अपने भाई निराजन और बहन श्रुति को भी नहीं छोड़ा. अपने पूरे परिवार को मार देने के बाद राजकुमार दीपेंद्र ने खुद की भी जान ले ली. कुल दो-ढाई मिनट में पूरा शाही ख़ानदान ख़त्म. घटना के तीन दिन तक दीपेंद्र सांस चलती रही थी, फिर उसकी मृत्यु हो गई और तब राजा बीरेंद्र के छोटे भाई ज्ञानेंद्र को नेपाल नरेश बनाया गया.

royal family
नेपाल का शाही परिवार: सबसे बाएं राजकुमार दीपेंद्र, उनके बग़ल में राजा बीरेंद्र और रानी ऐश्वर्या. (तस्वीर - गेटी)

मक़सद कभी साफ़ न हो पाया. मगर ऐसी अफ़वाहें हैं कि दुल्हन की पसंद को लेकर परिवार में कुछ विवाद था. जांच कमेटी बनाई गई, बयान लिए गए, मगर कुछ भी सिद्ध न हो सका. इस त्रासदी से देश शोक और अस्थिरता में डुब गया. कुछ सच हो न हो इतना जरूर है कि इस घटना ने नेपाल में राजशाही के उल्टी गिनती शुरू कर दी.

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एक तरफ़ ये हत्याकांड था, दूसरी तरफ़ जनांदोलन. साल 2006 में 'पीपल्स मूवमेंट' नाम से एक लोकप्रिय विद्रोह हुआ. राजा ज्ञानेंद्र शाह को सत्ता छोड़नी पड़ी, संसद बहाल करनी पड़ी. गुज़रे दस सालों में नागरिकों, माओवादी विद्रोहियों और सरकारी बलों समेत 17,000 से ज़्यादा लोगों की जान चली गई. हिंसा के चलते हज़ारों लोग विस्थापित होने को मजबूर हुए.

14 महीने बाद, 2008 में देश एक संघीय लोकतांत्रिक गणराज्य बन गया. राजशाही आधिकारिक तौर पर ख़त्म हो गई और संविधान सभा ने हिंदू राजशाही की सदियों पुरानी परंपरा को समाप्त करते हुए नेपाल को एक धर्मनिरपेक्ष राज्य घोषित कर दिया. ये जो घटना क्रम हुआ, इसी में छिपा है राजशाही के समर्थकों का सुराग़.

नेपाल के वरिष्ठ पत्रकार और लेखक युबराज घिमिरे ने हमें बताया कि इसी पावर ट्रांसफ़र की वजह से पेच फंसा हुआ है. जब नेपाल में आंदोलन चल रहा था, उस वक़्त प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने डॉ. करण सिंह को अपना विशेष दूत बनाकर भेजा. डॉ करण सिंह के इंटरव्यूज़ से इशारा मिलता है कि भारत राजतंत्र के ख़िलाफ़ और बहुदलीय लोकतंत्र के पक्ष में था. जब राजा ने पार्टियों को ताक़त सौंपी, आंदोलन के नेता जीपी कोइराला को प्रधानमंत्री बनाया गया और प्रतिनिधि सभा को पुनर्स्थापित किया. इस प्रतिनिधि सभा ने चुनी जाने वाली संविधान सभा को निर्देश दे दिया कि आप अपनी पहली बैठक में ही राजतंत्र को ख़त्म करेंगे. इसीलिए आज भी इस बात पर बहस होती है कि राजतंत्र ख़त्म करने के निर्णय पर बहुत चर्चा-विमर्श नहीं हुआ.

नेपाल का पीपल्स मूवमेंट (2006): 19 दिनों के आंदोलन ने ज्ञानेंद्र के शासन को समाप्त कर दिया था.

मतलब ऐसा नहीं है कि केवल RPP के लोग चाहते हैं कि राजशाही वापस लौटे. ऐसी मंशा वाले और भी लोग हैं. साथ ही इसमें दो और ग़ौरतलब बातें हैं. पहली, विचारधारा. राजतंत्र के समर्थक असल में राष्ट्रवाद को साथ लेकर चलते हैं और लोकतंत्र को एक 'विदेशी धारणा' मानते हैं. दूसरा, युबराज घिमिरे बताते हैं कि संघीय ढांचे का भी बहुत विरोध किया जाता है. सरकार पर भ्रष्टाचार के खुले आरोप लगते हैं. RPP समेत अन्य लोग ये दावा करते हैं कि सरकार का तीन स्तरों पर काम करना राष्ट्र के लिए बोझ हैं.

प्रदर्शन कर रहे एक युवा ने न्यूज़ एजेंसी ANI को बताया,

ये कहा गया था कि राजशाही और हिंदू साम्राज्य की वजह से आर्थिक प्रगति रुक रही है. लेकिन अब बहुत सालों बाद हमें कोई समृद्धि नहीं दिख रही है, जैसी कि हमें उम्मीद थी. इस वजह से हमें लगा कि नेपाल को एक संवैधानिक राजतंत्र की ज़रूरत है. नेपाल को एक बार फिर हिंदू राज्य बनना चाहिए.

राजा आ जाने के बाद समृद्धि कैसे लौट आएगी, इस बारे में साफ़गोई नहीं है. मगर लोग सड़कों पर हैं. एक लोकतंत्र में लोकतंत्र को ख़त्म करने की मांग कर सकते हैं, सो कर रहे हैं. 

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